Sunday 18 March 2012

जीवन क्या है ? जीवन या एक पहेली....


 एक बेहतरीन लेखिका के एक ब्लॉग को पढ़कर मेरे मन में उठे कुछ विचार 

गहराइयों मे जाकर भी सोचा है कभी कि यह जीवन क्या है ? समझ ही नहीं आता कि जीवन क्या है एक पहेली या एक हकीकत, जिसे समझते सुलझाते ही इंसान की तमाम उम्र गुज़र जाती है। मगर ज़िंदगी के अंतिम पड़ाव तक समझ नहीं आता कि यह जीवन आखिर था क्या? शून्य में निहारते हुए इंसान को अकेले में अक्सर कुछ प्रश्न आ घेरते है जैसे हम क्या चाहते हैं, क्यों चाहते हैं...जीवन हमें कैसा चाहिए जैसे सवाल। यूं तो हर इंसान दौहरी ज़िंदगी जिया करता है। हमेशा दो मुखौटों के साथ एक वो जो समाज और दुनिया को दिखाने के लिए होता है और एक वो जो खुद के लिए सच्चाई के आईने से कम नहीं होता। समाज और दुनिया के लिए लगाया गया मुखौटा अक्सर हम सभी रोज़ ही सुबह से अपने चहरे पर लगा लिया करते है, एक औपचारिकता भरी मुस्कान और जीवन के दो औपचारिक शब्द माफ़ करना और धन्यवाद के साथ और जब रात को अकेले में दिन भर की भागदौड़ के बाद जैसे ही सुकून के कुछ पल मिला करते है, तन्हाइयों के साथ तब अपने आप ही उतर जाता है,यह दिन भर से चढ़ा दिखावे का मुखौटा जैसे हटा हो कोई नकाब किसी अजनबी के चेहरे से,

तो तब अक्सर मन करता है निकल जाने को एक ऐसी सुनसान राह पर जहां तेज रोशनी उगलते ख़ाबों के बीच से गुज़रता कोई अपने आप सा खाली सा रास्ता तालाशता हुआ मन जहां हवा की सरसराहट से यहाँ वहाँ उड़ते सूखे पत्ते और बेवजह इक्का दुक्का निकलती गाडियाँ जिन्हें देखकर ऐसा महसूस होता है जैसे इनमें बैठे लोग भी बस भागे चले जारहे हैं अपनी दिन बार की ऊब को ख़त्म करने के लिए और उस अनदेखी अनजानी मंज़िल की तलाश में जिसका सफर है यह ज़िंदगी, ऐसे में जब हम दूर कहीं कोई पार्क में या बागीचे में ऐसे ही एक अधजले से टिमटिमाते बिजली के खंबे के नीचे पड़ी किसी बेंच पर जाकर झींगुरों और मच्छरों के शोर तले कुछ देर बैठे हुए जब अपने आप से मिलते हैं तब अकसर किसी एक पल का कोई टुकड़ा हमारा हाथ पकड़ के हमको ख्यालों की उस दूसरी दुनिया में लेजाता है और हम उसमें गुम हो जाते हैं। जहां हम तन्हा होकर भी खुद को कभी तन्हा महसूस नहीं किया करते और तभी अचानक जैसे  कहीं से कोई आवाज का सूरज उगता है यह कहते हुए कि इतनी रात गए यहाँ क्या कर रहे हो, चलो जाओ अपने घर और हम उस आवाज के साथ उन ख्यालों की दुनिया से बाहर आजाते हैं । तब अक्सर घर लौटे वक्त दिमाग में फिर एक खयाल दस्तक देता है।

एक दुनिया हमारे अंदर भी है, जो बिकुल बाहरी दुनिया की तरह है। जहां रास्ते भी हैं, मंज़िले भी, जहां पहाड़ भी है,नदियाँ भी,जहां मौसम के रूप में बहार भी है, तो पतझड़ भी, प्यार भी है, तो नफरत भी, वो सब कुछ है जो हमें बाहर दिखाता है। जबकि दरअसल वह सब हमारे अंदर ही होता है। इन्हीं सब ख़यालों के बीच चलते हुए रात का अंचल पसरता जाता है और उस बागीचे से घर को लौटता वह रास्ता जिस पर चलकर हम खुद से मिलने गए थे छोटा होता चला जाता है और अंत में हम फिर वहीं आखड़े होते हैं जहां से चले थे कभी....शायद किसी ने ठीक ही कहा है "दुनिया गोल है"। लेकिन इन सब के बीच एक बात तो तय है, कि किसी भी इंसान को अकेले होने के लिए किसी सुनसान बियाबान जगह पर जाने की कोई जरूरत नहीं होती। हम इंसानों से, रिश्ते नातों से, भरे जंगल में भी अकेले हो सकते हैं। कभी भी, कहीं भी...जैसे वो गीतहै ना
"हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी 
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी"

सोचते-सोचते लगता है उफ़्फ़ कितनी उलझन भरी है यह ज़िंदगी जिसका सफर है मगर मंज़िल कोई नहीं, शायद मंज़िल नाम की कोई चीज़ होती ही नहीं, सिर्फ सफर ही हुआ करता है। हाँ जब भी ऐसा लगता है, कि  हमको हमारी मंज़िल मिल गई, किन्तु तब वास्तव में वो मंज़िल नहीं जीवन के सफर का एक पड़ाव होता है।  जहां हम कुछ देर रुकते है और यह गुमान हो जाता है। कि यही तो है हमारी मंज़िल, मगर फिर थोड़े ही दिनों में यह अहसास भी हो जाता है, कि अभी कहाँ अभी तो दिल्ली बहुत दूर है। अभी तो बहुत कुछ है जीवन में जिसे अभी पाना है। अभी हम रुक नहीं सकते अभी तो बस चलते ही चले जाना है और हम फिर निकल पड़ते हैं उस अनजानी सी अनदेखी मंज़िल की ओर जीवन के इस पथ पर चलते-चलते कुछ हमसफर मिलते हैं ऐसा आभास सा होता है, लेकिन उनके बिछड़ते ही हम और अकेले हो जाते हैं। यानी शाश्वत है अकेला होना ही। तो क्यूँ न यह जीवन भी अकेले ही जिया जाये। क्या जरूरत है किसी के साथ की, यूं भी तो अब तक का सफर हमने अकेले ही तय किया है। क्यूंकि हमसफर भले साथ हो आपके मगर उसके बावजूद भी आपकी अपनी एक अलग दुनिया होती है जहां सिर्फ और सिर्फ आप होते हैं। आपके अंदर कि दुनिया बिना मुखौटे की दुनिया,जहां आप खुद से मिला करते हैं।  

तब कभी महसूस किया है, किसी नदी के किनारे बने 
किसी मरघट के दृश्य को
कहीं किसी के स्मृतिचिन्ह किसी पत्थर के रूप में दर्जहोते हैं 
तो कहीं थोड़ी थोड़ी दूरी पर आग भी होती है।   
जीवन भर की थकी हुई देहों को विश्राम देती आग. 
कहीं आग बस बुझने को हुआ करती है 
तो कहीं धू-धूकर जल रही होती है।   
तो कहीं मंथर गति से जल रही होती है  
मानो अपनी ही गति पर मुग्ध हो.
हर एक आग का अपना एक अलग ही दृश्य नज़र आता है
मगर उन चिताओं का भी 
अंत समय आनेतक वहाँ कोई नहीं रुकता
और रहजाता है वहाँ भी फिर एक बार वही अकेलापन.....
प्रतिभा कटियार 

यह जीवन का कैसा सत्य है। जहां इंसान का रिश्ता केवल उसकी साँसों पर टीका होता है। जहां साँसे ख़त्म वहाँ सब कुछ जैसे अचानक से कहीं विलीन हो जाता है। सासों के रुकते ही शरीर अपवित्र हो जाता है। अपने ही घर में अपनी ही लाश छूत पाक का करण बन जाती है और जल्द से जल्द उसे अग्नि के सुपुद्र करने कि कोशिशें शुरू हो जाती है और शायद तब उस अग्नि में आहुति हम खुद ही रूह रूप में दूर खड़े हो देदीया करते हैं। अपने अंदर उन बरसों से चल रहे प्रश्नो को, कि हम कौन है, हमारी मंज़िल क्या है कोई मंज़िल भी है या यह सफर ही है बस जो न रुकता है न थमता है बस केवल चला करता है। क्या पता इन जलती हुई चिताओं में इन सवालों कि आहुतियों के बाद भी इंसान को सुकून मिल भी पाता है या नहीं, इस अतिम सफर के बाद भी यह जीवन पहली सुलझ भी पाती है या नहीं ????              

4 comments:

  1. aapka vichar aachha laga aap bhawanaon bhati chali gayin.main batawon jeevan kya hai ek saja juge kaun hai dimag karwata kaun hai gayannedryan aur eska samadhan kya hai - dimag ka lakwa.

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  2. जीवन के एक एहसास को अभी से महसूस करा दिया । धन्यवाद देव

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  3. अच्‍छा ब्‍लाग है धन्‍यवाद आपका

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